Friday, January 15, 2010

आहट ओस की !

सुबह होने से बस कुछ पहले
कमल लगे जब जैसे खिलने
चान्दिनी में भीगी सी तुम
ओस की गिरती आहट सुनने
लौट के फिर जाती जो




रात का जीवन सो चुका है
दिन में है अभी देर ज़रा सी
तुम आयोगी , क्यों लगा मुझे यूं
रुकी रुकी जब चली हवा सी


चाँद गया है झील में ढलने
कोयल भी है वाली उठने
चान्दिनी में भीगी सी तुम
ओस की गिरती आहट सुनने
लौट के फिर जाती जो




जहाँ जहाँ तेरे पैर पड़े थे
वह दबी घास इतराती है
जिस फूल को तुमने छुआ था
उस शाख में कम्पन अभी बाकी है



साँस रोके, यहाँ पेड़ हैं जितने
खड़े हुए बरसों से कितने
चान्दिनी में भीगी सी तुम
ओस की गिरती आहट सुनने
लौट के फिर जाती जो




जिस जगह पे तुम कभी बैठी थी
वहां दिया आस का जलता है
पत्थर , पोधे , पेड़, हवा सब
कुछ भी नहीं बदलता है



कितनी कोशिश कर ली सबने
प्यास नहीं ये वाली बुझने
चान्दिनी में भीगी सी तुम
ओस की गिरती आहट सुनने
लौट के फिर जाती जो




यह चाँद , रात और नीरवता
सब , कुछ पल में गुम हो जायगा
कई हजारों सालों में
एक पन्ना और जुड़ जायगा





कुछ नमी अभी बची है इनमे
छोड़ी थी आँखों में जो तुमने
चान्दिनी में भीगी सी तुम
ओस की गिरती आहट सुनने
लौट के फिर जाती जो















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